هلال على سلم الليل
يخونك نهرٌ
| |
فترمي لخيلك اسمائها..
| |
ترحل في جثة الليل..
| |
تسرج لحظة فادحا كـُحلها
| |
ثم توغل في بشر ٍ
| |
لايلدون سوى الشجر المُر
| |
ونخلة في مهب العراء
| |
وحين تموت قليلا..
| |
ويرتج حزنك..
| |
بين السماوات..
| |
والوعد
| |
يحتد.. ماظنه القلب
| |
مـــاء...
| |
..
| |
..
| |
أكان جديرا بقلبك
| |
أن ينضج اليوم
| |
حتى تقــــــــشـّــر عنه البلاد
| |
وتشوي له
| |
المدن الصامدة..
| |
خلف هذا التراب ..
| |
حنين ٌ
| |
وقرب دمائك ..والموت
| |
عناقيد صبايا..
| |
وأنت هلال ُ..
| |
على سلم الليل
| |
..
| |
..
| |
لماذا توجع الموت منك..
| |
تلاقيتما
| |
كان يحجل في ساحة الزهو
| |
حين رآك َ..
| |
أراك ألاعيبه
| |
أرخى عمامته
| |
دار على قدم ٍواحدة
| |
شد إلى طائر فى السديم
| |
بقوس ٍ
| |
فأرداه
| |
ثم ابتسم
| |
..تقدمت ..
| |
رقرقت من صولجان البراءة
| |
فوق الشهيد
| |
وشيئا..فشيئا
| |
تخلــّــق..
| |
دمدم القلب... بالدم
| |
قام العدم
| |
وابتسمت َ..
| |
فألقى لك الموت قفازه
| |
وقناع المهالك..
| |
فر ّ..
| |
سددت عليه المسالك
| |
حتى استذل
| |
فبادلك المجد َ
| |
صرت َ الذي كانه
| |
سيدا ً للمشيئة ..
| |
طفت َعلى أوج المواعيد
| |
أصلحت ميزانها
| |
وأعدتَ القتيل
| |
إلى دمه
| |
والدماء لأغصانها
| |
والغصون إلى سدرة ٍ
| |
خالفت طقسها البابلي
| |
وحين تكاثر فيك النعاس ُ
| |
وناداك شئ ٌ
| |
تقدمت في جمرة من دماء ٍ..
| |
إلى ذات قبر ٍ
| |
توجع ..
| |
حين رأى
| |
روحك الظالمة
|