إليـكِ..
تيتّم حلمي
| |
فهل تصطفينهْ ..؟!
| |
تشرَّد داخل ألْفِ مدارْ
| |
تسلَّق بالنجم ألْفَ جدارْ
| |
تشوَّف عينيك
| |
حين تأبَّتْ عليه السكينهْ
| |
فهل تصطفينهْ ..؟!
| |
وهل تسمحين..
| |
بأن يصطفيك ظلالاً
| |
لحَرِّ التَّسكُّعِ ما بين موتٍ ..وموت؟!!
| |
فإنَّ القصيدة صارت عصيّهْ
| |
وكل العصافير صارت
| |
...
| |
- بهذا الزمان- سبيَّهْ
| |
وأنت الصبيَّهْ
| |
وأنـــت الفتيَّهْ
| |
وأنت البلاد التي يحتويها
| |
ويسرج عند هواها ظنونهْ
| |
فهل تصطفينهْ ..؟!
| |
.. .. .. ..
| |
لقد راوغته الحياةُ كثيراً
| |
وأغوتْ نوارسَ أحزانِهِ
| |
أن تحطَّ على شاطئٍ
| |
لا يبوح بغير الســـؤالْ
| |
تلاطم والغيبَ
| |
حتى تهشم ألفَ احتمالْ
| |
وألفُ احتمالٍ
| |
ينقِّر عند المساء يقينهْ
| |
...
| |
فهل تصطفينهْ ..؟!
| |
فما زال يقبع تحت الدعاء
| |
وما زال ينبش بين حطام التوسُّل
| |
عن زينتين ...
| |
وعن فتنتين..
| |
يمدُّ أكفَّ الضراعة نحو السماء
| |
ويغرس فيها قصورا
| |
ويغرس نخلاً
| |
ويغرس حوراً
| |
ويغرس ظلاً
| |
تفيء إليه المسافةُ
| |
ما بين ركض الربيعِ ...
| |
...
| |
وحبو الشتاءِ
| |
عساه يفوز بطوق نجاهْ
| |
وتخرق من بعد هذا السفينة
| |
عساهُ ..
| |
عساهْ ..
| |
فقد ضلَّ عنه
| |
وقد ضلَّ عنِّى
| |
وسوف يضيع إذا لم يُكنِّى
| |
فعافرَ..
| |
كي تستعيد الطريقَ خطاه
| |
وقامرَ بالعمر..
| |
كي لا يموتَ الحياه
| |
فقد تبعثينه
| |
إذا ما مسحتِ على يُتمِهِ
| |
واحتضنتِ سنينهْ
| |
...
| |
فهل..
| |
تصطفينَهْ ..
| |
إلى أن أكونَهْ..؟!
| |
إلى ...
| |
أن أكونَهْ
| |
فهل تصطفينَهْ ..؟!
|