صـديق
أعرنى يا صديقــــــى مخلباً
| |
كى أدرأ الغربانَ عن خبزى..
| |
وعن بيتى
| |
ربَّما كفَّرْتُ عن ذنب ِ القصيدة
| |
حينما أودعتُها عمري الجميلَ
| |
..... ولم تخُنْ موتى
| |
...
| |
أعرنى من وجوهك ...
| |
ما يوارى خلف بسمتهِ
| |
نيوبَ الغدرِ..
| |
والأحقادِ..
| |
والمقْتِ
| |
...
| |
أعرنى – يا صديقى-
| |
نابَك المغروز فى قلبى
| |
فقد يجدي..
| |
بأن تتذأَّب الأطيارُ فى وطن ٍ
| |
تقوم ذيوله للعهرِ..
| |
والدولارِ..
| |
والزيتِ....!!!
|