(ريودي جانيرو، 1966) | |
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الظَّلام. | |
مطرٌ خفيفٌ | |
يبلّلُ الشوارعَ. | |
لا شيءَ يتحرَّكُ | |
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في حديقةِ لوتا | |
تتدلّى أشجارُ النّخيلِ | |
فوق العشبِ المجدولِ، | |
والأغصانُ المتشابكةُ، | |
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المحزَّمةُ في رُزَمٍ، | |
تتموَّجُ بجوارِ الأرصفةِ. | |
العالمُ بعيدُ المَنال. | |
أشباحُ السابحينَ تنهضُ | |
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ببطءٍ من الزَّبد | |
وترتفعُ عالياً في الرَّذاذ. | |
يتنزَّهونَ على الشّاطئِ | |
وعيونُهم تتوهّجُ | |
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كالنّجومِ. | |
ورِيُو تنامُ: البحرُ حلمٌ | |
فيه تموتُ وتولدُ من جديد. | |
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يسرعُ الباصُ. | |
تذوبُ غيمةٌ بنفسجيّةٌ | |
من خلْفِه | |
ساقايَ ترتجفان. | |
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تمتلئُ رئتايَ بالبُخارِ. | |
يغطّي العرقُ وجْهي | |
ويتساقطُ على صَدْري. | |
يؤلمني عُنقي وكتفايَ. | |
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غيرَ واثقٍ من | |
يقَظتي | |
أتشبّثُ بالحافةِ | |
السّاخنةِ لِلمقْعَد. | |
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يبتَسمُ السّائقُ. | |
سِرْوالُه منزلِقٌ إلى أعلى ركبَتَيْه. | |
ورَبْلَتاه العارِيتانِ | |
تتوهّجانِ في الحرّ. | |
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تحاولُ امرأةٌ أنْ تهدِّئني. | |
تضعُ يدَها تحتَ قميصي | |
وتكتبُ أسماءَ الأزهارِ | |
على ظَهْري. | |
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تنّورَتُها سوداءُ. | |
على كلّ ركْبةٍ من رُكْبتيها رُسِمَتْ | |
جمجمةٌ صغيرةٌ وعظمتانِ مُتَصالبتان. | |
هناكَ حديقةٌ في عينيها | |
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حيثُ صفوفٌ من شواهد قبورٍ بيضاءَ | |
باهتة تملأُ الهواءَ، | |
والنّاسُ واقفون، | |
يلوّحونَ بالوَداع. | |
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أشعرُ بأنّي هناك. | |
تهمسُ عبر أسنانها، | |
وتضعُ شفَتَيْها | |
على خدّي. | |
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يلتفِتُ السّائقُ. | |
عيناهُ مغلقتان وهو يمشّطُ | |
شَعْرَهُ للخلف. | |
يريدني أنْ أكونَ شُجاعاً. | |
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أشعرُ بنَبْضِ قلبي | |
يزدادُ ضعفاً إذ يتحدّثُ. | |
تقبّلني المرأةُ ثانيةً. | |
فكُّها يصِرُّ | |
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ويلتصِقُ نفَسُها | |
كضبابٍ بعنقي. | |
ألتفتُ إلى حافةِ | |
النّافذةِ المِصَّدَعَةِ | |
المخطَّطةِ بالمطرِ. | |
أين كنْتُ؟ | |
أنظرُ صوْبَ ريو- | |
كلُّ شيءٍ مختلف. | |
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لا يمكنُ رؤيةُ | |
المسيحِ الذي كانَ واقفاً | |
في برْكَةٍ من الضّوءِ الكهربائيّ | |
فوق أعالي تلَّتِه. | |
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الخليجُ أسودُ. | |
والمدينةُ السّوداءُ | |
تغرقُ في قبرِها. | |
ولن أرجعَ أبداً. | |
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أَكْلُ الشِّعر | |
يسيل الحبرُ من زوايا فمي. | |
لا سعادةَ كسعادتي. | |
أنا آكلُ الشّعرَ. | |
لا تصدّقُ موظفةُ المكتبة ما تراه. | |
عيناها حزينتان | |
وهي تتمشّى ويداها في ثوبها. | |
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اختفتِ القصائدُ. | |
الضّوءُ خافتٌ. | |
الكلابُ على درج القبو، وهي تصعَدُ الآن. | |
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عيونها تدورُ | |
وكأغصانٍ تحترقُ سيقانُها الشّقراءُ. | |
تبدأ الموظَّفةُ المسكينةُ بهزِّ قدَمِها والبكاء. | |
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إنّها لا تفهمُ ما يجري، | |
فتصرخُ | |
حين أركعُ على ركبتيَّ لاحِساً يدَها. | |
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أنا رجلٌ جديد. | |
أزمْجِرُ عليها وأنبَحُ. | |
ألْهو بمرحٍ في ظلامِ الكتبِ. | |
التَّخلّي عن نَفْسي | |
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أتخلَّى عن عينيَّ اللّتين هما بيْضَتانِ زُجاجيّتان. | |
أتخلَّى عن لِساني. | |
أتخلّى عن فَمي الذي هو الحلمُ الدائمُ | |
لِلِساني. | |
أتخلَّى عن حَلْقي الذي هو كُمُّ صَوْتي. | |
أتخلّى عن قلبي الذي هو تفَّاحة تحترقُ. | |
أتخلّى عن رئتيّ اللّتين هما أشجارٌ لم ترَ | |
القمرَ قطّ. | |
أتخلّى عن رائحتي التي هيَ رائحةُ حجرٍ يسافرُ عبْرَ | |
المطر. | |
أتخلّى عن يديَّ اللّتين هما عشرُ أمنيات. | |
أتخلّى عن ذراعيَّ اللّتين تريدانَ تَرْكي بأيّ شكْلٍ. | |
أتخلّى عن ساقيّ اللّتين هما عاشقتان في اللّيل فقط. | |
.... | |
أتخلّى عن ثيابي التي هي جدرانٌ تخفقُ في الرّيح | |
وعنِ الشّبح الذي يحيا فيها. | |
أتخلَّى وأتخلّى. | |
ولن تحظَى بشيءٍ من ذلك لأنّني أبدأ للتوِّ | |
ثانيةً من دون أيّ شيءٍ. | |
النّبوءَة | |
تلكَ اللّيلةَ، اندفعَ القمرُ فوق البرْكَةِ، | |
محوّلاً المياهَ إلى حليبٍ، وتحت | |
أغصانِ الأشجارِ، الأشجارِ الزّرقاء، | |
تمشَّتْ امرأةٌ شابّةٌ، ولِلَحْظةٍ | |
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انكشفَ لها الغيْبُ: | |
يهطلُ المطرُ على قبرِ زوجِها، على | |
مروجِ أطفالِها، هواءٌ | |
باردٌ يملأ فمَها، يدخلُ الغرباءُ منزِلَها، | |
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رجلٌ في غرفتها يكتبُ قصيدةً، يندفعُ القمرُ إليها، | |
امرأةٌ تتجوّلُ تحت أشجارِها، مفكِّرةً بالموت، | |
مفكّرةً به مفكّرةً بها، والرّيحُ ترتفعُ | |
وتأخذُ القمرَ، تاركةً الورقةَ سوداء. | |
* | |
ترجمة: جولان حميد حاجي | |
تحرير النص: أسعد الجبوري |
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البَاصُ الأخير | مارك ستراند / Mark Strand
Written By هشام الصباحي on السبت، 18 أكتوبر 2014 | أكتوبر 18, 2014
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