التوق الغجري الى الفراق | |
ما ان تلقاه حتى يهرب منك | |
وقع جبيني على يدي | |
امعنت في التفكير | |
محدقة الى الليل | |
لم يفقه احد منّا بعمق | |
كم كنا في رسائلنا غادرين | |
اي كم كنا لأنفسنا أوفياء | |
كتبت في تشرين الأول عام ١٩١٥ | |
يا عابر السبيل | |
انك تشبهني في سيرك | |
خافض العينين | |
وأنا خفضت عيني ايضا | |
أيها الاخفش قدم لي | |
باقة أقحوان وثق | |
بأن اسمي كان مارينا | |
ومهما كان من العمر لي | |
لا تظن ان ها هنا مقبرة | |
وأنا سأظهر متوعدة | |
فأنا أحببت الضحك فقط | |
حين كان الضحك محرماً | |
وكان الدم يطفح من جلدي | |
وكان شعري يتبعثر | |
لكنني كنت احيا، كعابرة سبيل | |
قف يا عابر السبيل! | |
اقطف لي غصنا برياً | |
ثم اقطف حبة توت | |
فلا ألذ ولا اجمل | |
من توت الأرض الذي | |
ينمو فوق المقابر | |
ولكن لا تقف مكفهر الوجه | |
مطأطئ الرأس محني القامة | |
فكر فيّ برقة | |
وانسني برقة | |
يا له من شعاع يضيئك | |
يغلفك بغبار ذهبي | |
اريد ألا يحيّرك | |
صوتي من باطن الأرض | |
* | |
ترجمة: اسكندر حبش |
التوق الغجري الى الفراق | مارينا تسفيتاييفا
Written By تروس on الأحد، 27 ديسمبر 2015 | ديسمبر 27, 2015
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