منساباً بأسى إلى رماد لامع، | |
مرمى دموع الفانيلا، | |
جسدك الأكيد أضاء شموعاً للرجال | |
في الليالي المظلمة، | |
والآن ليلك أعتم | |
من مدى الشمعة | |
وسننساك، على نحو ما، | |
وهذا ليس بلطيف | |
لكن الأجساد الحقيقية أقرب | |
وفيما الديدان تلهث وراء عظامك، | |
أحب أن أخبرك | |
أن هذا يحدث للدببة والفيلة | |
للطغاة والأبطال والنمل | |
والضفادع، | |
ومع ذلك، جلبتِ لنا شيئاً، | |
نوعاً ما من النصر الصغير، | |
ولهذا أقول: جيد | |
ودعينا لا نحزن أكثر؛ | |
كزهرة جفّت ورميت، | |
ننسى، نتذكّر، | |
ننتظر. أيتها الطفلة الطفلة الطفلة، | |
أرفع كأسي هنيهة كاملة | |
وأبتسم. | |
* | |
ترجمة: سامر أبو هواش |
إلى مارلين م. | تشارلز بوكوفسكي / Charles Bukowski
Written By هشام الصباحي on الأربعاء، 14 أكتوبر 2015 | أكتوبر 14, 2015
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